कला - साहित्य

लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता और साहित्यकारों का जीवंत समाज— रमेश शर्मा

पिछले दिनों मैं छत्तीसगढ़ के जांजगीर शहर में गया हुआ था। शील साहित्य परिषद वहां की एक पंजीकृत साहित्यिक संस्था है जिसके अध्यक्ष एडव्होकेट एवं कथाकार विजय कुमार दुबे हैं। वहां के साथियों ने बताया कि शील साहित्य परिषद में शासन के नियमानुसार चुनाव तो होते हैं पर हमेशा निर्विरोध चुनाव ही होते हैं । साथियों की आस्था अपने संस्थापक अध्यक्ष विजय कुमार दुबे पर आज भी है क्योंकि उनके मार्गदर्शन में संस्था ने नए मुकाम हासिल किए हैं। वे आज भी अध्यक्ष के पद पर आसीन हैं। किसी गैर सरकारी साहित्यिक संस्था का स्वयं का दो मंजिला भवन जिसमें सारी बुनियादी सुविधाएं हों और जिसका लोकेशन मुख्य सड़क पर सरकारी भवनों के साथ हो तो निश्चय ही यह एक बड़ी बात है। इस भवन का अहाता भी ऐसा है कि उसके भीतर हरा भरा गार्डनिंग है । हरे भरे वातावरण से उस जगह का आकर्षण अपनी ओर थोड़ा और खींचता है। यह सब कुछ टीमवर्क से ही हुआ है। यह एक लंबी यात्रा पूरी करने जैसी बात है । भवन की जमीन सरकारी है और टीम के अथक प्रयासों से जमीन का आवंटन हुआ है। भवन का निर्माण भी स्थानीय जनप्रतिनिधियों के आर्थिक सहयोग से ही हुआ है। आज के समय में एक साहित्यिक टीम द्वारा स्थानीय जनप्रतिनिधियों से सहयोग लेकर दो मंजिला सुविधायुक्त भवन का निर्माण करवा लेना भी एक बहुत बड़ी बात है। इस भवन का रखरखाव एवं संचालन का खर्च टीम के आपसी सदस्यता सहयोग के माध्यम से ही होता है। बड़ी बात यह भी कि इस संस्था में नियमित रूप से साहित्यिक आयोजन होते हैं। इन आयोजनों में स्थानीय साथियों के साथ-साथ बाहर के भी साहित्यकारों को समय-समय पर आमंत्रित किया जाता है।

हमने राजनीतिक पार्टियों का , जातिगत समाजों का अपना स्वयं का भवन होते हुए तो देखा है पर छत्तीसगढ़ के किसी शहर में एक वैचारिक साहित्यिक समाज का अपना स्वयं का सुसज्जित भवन नहीं के बराबर ही कहे जा सकते हैं । शील साहित्य परिषद का यह भवन स्थूल रूप में महज एक भवन ही नहीं है बल्कि मूल रूप में यह एक छोटे से शहर के जीवंत सांस्कृतिक साहित्यिक मूल्यों का भी जीता जागता उदाहरण है। इसके पीछे साहित्यिक समूह से जुड़े बुजुर्गों एवं युवाओं की प्रतिबद्धता , आस्था , आपसी समझ और प्रेम, लगन तथा कड़ी मेहनत की भी अपनी जीवंत कहानियाँ हैं। यूं तो मेरी यात्रा शील साहित्य परिषद के अध्यक्ष विजय कुमार दुबे के नए कहानी संग्रह ‘एक टुकड़ा आकाश’ के लोकार्पण एवं परिचर्चा को लेकर थी पर वहां जाकर एक लगनशील, विनयशील एवं जीवंत साहित्यकारों के समूह से जब मैं मिला तो लगा कि बाज़ारू समय के भीतर भी एक जीवंत समाज की मौजूदगी है जो विचारों की दुनिया को बचाने में सतत संघर्षशील है।अमूमन आज के समय में ज्यादातर शहरों में साहित्यकारों का समाज बहुत बिखरा हुआ समाज है जो अपने निजी हितों और स्वार्थ के कारण समाज से अलग थलग सा हो गया है। ऐसे में इस तरह के प्रतिबद्ध साहित्यिक समाज से रूबरू होना मेरे लिहाज से आश्वस्ति से भर देने वाली घटना है।आज हर एक छोटे बड़े शहरों में इस तरह का संगठित साहित्यिक समाज होना चाहिए। लगातार सामाजिक साहित्यिक विषयों पर चर्चा होनी चाहिए। इससे दिशाहीन हो रहे युवाओं को एक दिशा मिलेगी। विचारों की विदाई के इस समय में लोगों के बीच विचारों के मशाल को जलाए रखने के लिए इस तरह का समाज आज बहुत जरूरी भी है।

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