कला - साहित्य
माँ एक अहसास
माँ मैं अब, कुछ तुझ सी हो गई हूँ
माँ मैं अब, कुछ तुझ सी हो गई हूँ
घंटों कुर्सी पर बैठ,
अपना बिस्तर ठीक होने की राह तकती हूँ,
माँ मैं अब, कुछ तुझ सी हो गई हूँ ।।
नाश्ते, दवा फिर शाम की चाय
दिवाल घड़ी में समय मिलाती हूँ
माँ मैं अब, कुछ तुझ सी हो गई हूँ ।।
दिन का बोझ उठाते थके कंधे पर,
विक्स और बाम लगाने लगी हूँ
माँ मैं अब, कुछ तुझ सी हो गई हूँ ।।
शाम की आँखों में उतार पथराई आँखें ले,
बिस्तर पर लौट आती हूँ,
हाँ, माँ मैं अब, कुछ तुझ सी हो गई हूँ ।।
माँ मैं अब, कुछ तुझ सी हो गई हूँ ।।
“हिना पुजारा”