कला - साहित्य
चल पड़ा हूं मैं

चल पड़ा हूं मैं
चल पड़ा हूं मैं
अविराम यात्रा की ओर
क्षितिज पर मिलन हो
ऐसा इक आस लिए
इस दौरान होंगी
मुझे कई अनुभूतियां
यथार्थ और कल्पना
के बीच चलता द्वंद्व
संघर्षों की माला
ख़ुद पहन कर
चिदाकाश की आस में
बढ़ रहे मेरे कदम अब
अपना पराया का होता
जद्दोजहद अन्तर्मन में
यायावर होने को आतुर
चल पड़ा मेरा सफ़र
दुनियावी बोध को
आत्मसात करता
एक आस है मुझे
ब्रह्मलीन होने की
अविराम अन्तहीन
यात्रा में बढ़ता
चल पड़ा हूं मैं

गौतम प्रधान ’मुसाफ़िर’
दिनाँक 27.06.205
केलो विहार रायगढ़ (छत्तीसगढ़)