कला - साहित्य
“प्रकृति तो खजाना है, हर हाल में इसे बचाना है”

क्या चाहती हूँ ,क्या है जरूरत
क्या प्रीत नहीं निज संतान से
क्यूँ इतना भी नहीं समझ पाती हूँ
नहीं संभव जीवन बिन तेरे भान है मुझे
फिर क्यूँ सब निगलती ही निगलती जा रही हूं
लगाया नहीं एक तरु आज तक
बस छाया ही छाया चाह रही हूँ
फिजाओं में जहर घोला है
भर बोतल में हवा को
बाहर श्वास ही श्वास चाह रही हूँ
चीर धरती का सीना
कतरा – कतरा तो निचोड़ा है हमने
पिया नहीं एक बूँद भी
अमृत नालियों में बहाती ही बहाती जा रही हूँ
मेरी ही प्रकृति का मैं ही क्यों दोहन करती जा रही हूँ
मिली विरासत, मिली अनमोल धरोहर है मुझे
काश! बचा सकूँ मैं इसे
मेरे ही बच्चों का जीवन
क्यूँ मैं खुद ही विषाक्त बनाती जा रही हूँ।
श्रीमती वीणा अग्रवाल रायगढ़