एक शाम ऐसी भी…

एक शाम ऐसी भी…
पहाड़ों में देखा मैंने
एक शाम ऐसी भी,
कुहासों का दुशाला ओढ़े
धुंध में लिपटी रही
बेलौस देवदार की चुप्पी
ठिठका सा खड़ा उनींदी
आंखों से ताक रहा था
सुना आसमान को
दूर – दूर तक मेघ – श्याम
काली चादर तान
सुस्ता रहे थे
पहाड़ों के कंधों पर
जैसे दूर यात्रा से थके यात्री।
चीड़, अपने पत्तों से
जैसे छेड़ता राग – बिहाग
सुनी राहें, पड़ी थी निढ़ाल
शैल प्रदेश में,प्रतीक्षारत
अपलक
निहार रही है
राह सुबह से सांझ तक
अपने किसी प्रिय के आने का।
दिन भर स्वागत करती रही
आगंतुकों का
अब जैसे विश्राम चाहती हो
चैतन्यता के लिए
लिए वन माल हाथ में
खड़ी हो शैल द्वार पर
सिंदूरी किरण से
तिलक करने
अभ्यागत अतिथियों का।
बेशक आते हैं देव पर
अनपढ़ा पत्र सा खुली
रह जाती सुनी आँखें।
दरकती पहाड़ियों का मौन
रुदन छिप जाता है
अलकनंदा के स्वर – संगीत में
जैसे पहाड़ों के आंसू भी
जल बन कर
निकल जाते हैं
आतिथ्य सत्कार में।
पीठ पर बोझ लादे नत आँखें
ढूँढती चली जा रही हों
किसी पद निशान को
वेद मंत्र गुनगुनाता
किसी ध्यानस्थ संत सा ।

कवियत्री – श्रीमती पुष्पांजलि दासे
रायगढ़ (छत्तीसगढ़)