“माँ, तेरी सिलवटों की दास्ताँ”

कभी – कभी सोचती हूँ कि माँ के दमकते चेहरे को
कब सिलवटों ने घेर लिया पता ही नहीं चला
ये सिलवटें कब चोरी से दबे पाँव आई,
वह खुद भी नहीं जान पाई
हर बीतते हुए साल में,
माँ ने ना जाने कितने चीजों को छोड़ा होगा
कितनी इच्छाओं, कितनी ख्वाहिशों ने दम तोड़ा होगा
कितनी ही पीड़ा, उपेक्षा और तिरस्कार,
जिन्हें माँ ने हृदय के किसी कोने में,
छुपाकर रखना चाहा होगा
लेकिन वे पीड़ाएं नहीं चाहती थी सिमटकर रहना
इसलिए हृदय से बगावत कर
शायद उन्होंने ही सिलवटों की जगह ले ली होगी
कभी – कभी माँ मुझे,
एक पुरानी सी किताब प्रतीत होती हैं
जो अपने आप में परिपूर्ण हैं
लेकिन
जिनके पन्ने दीमकों के दावत बन चुके हैं।
उन पन्नों के बीच एक सिकुड़ा, मुड़ा हुआ एक पन्ना
जो माँ के इतिहास की कहानी बताता होगा
माँ ने लाख छुपाया होगा
लेकिन शायद वही छुपकर,
माँ के चेहरे पर उभर आया होगा….
हिना पुजारा –