कला - साहित्य

छायावाद’ के बाद रायगढ़ से ही एक और नामकरण ‘करूकाल’डॉ. मीनकेतन प्रधान के दो काव्य संग्रहों ‘महानदी’ और ‘करूकाल’ का विश्व पुस्तक मेले में हुआ लोकार्पण

रायगढ़ अंचल को राष्ट्रीय एवं वैश्विक फलक पर गौरवान्वित करने वाले प्रतिष्ठित साहित्यकार पूर्व प्राध्यापक, विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालयीन अध्ययन मंडल अध्यक्ष डॉ. मीनकेतन प्रधान के दो काव्य संग्रहों ‘महानदी’ और ‘करूकाल’ का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में विगत 7 फरवरी को हुआ। ‘महानदी’ काव्य संग्रह का लोकार्पण कार्यक्रम सर्व भाषा ट्रस्ट के स्टॉल पर आयोजित हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ साहित्यकार प्रभात पांडेय ने की। इस अवसर पर अमलनेर जलगाँव के प्रो. कुबेर कुमावत, शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के वरिष्ठ अधिकारी डॉ. दीपक पांडेय एवं डॉ. नूतन पाण्डेय, डॉ. दीप्ति अग्रवाल, भोजपुरी के वरिष्ठ साहित्यकार जयशंकर द्विवेदी उपस्थित रहे। इसी तरह ‘करु काल’ काव्य संग्रह का लोकार्पण केंद्रीय हिंदी निदेशालय के स्टॉल पर सम्पन्न हुआ। इस लोकार्पण अवसर पर स्वराज प्रकाशन के स्वामी अजय मिश्र, सुप्रसिद्ध व्यंगकार सुभाष चन्दर, आई सी सी आर के सीनियर प्रोग्राम डायरेक्टर सुनील कुमार, शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार के डॉ. दीपक पाण्डेय, डॉ. कृति शर्मा, डॉ. दीप्ति अग्रवाल, भाषा पत्रिका की संपादक और केंद्रीय हिंदी निदेशालय की सहायक निदेशक डॉ. नूतन पाण्डेय की उपस्थिति रही। इस अवसर पर अनेक हिंदी प्रेमी उपस्थित रहे।दोनों ही काव्य संग्रहों के विषयवस्तु व शिल्प साहित्यानुरागियों के लिए अत्यंत रूचिकर एवं उपयोगी हैं वहीं विषय वस्तु की महत्ता समाज के लिए अत्यंत विचारणीय। ‘महानदी’ संग्रह की पहली कविता ‘महानदी’ है जिसके अंतर्गत मनुष्य की प्रकृति के प्रति निर्भरता और अनुराग का भावपूर्ण दृश्य चित्रित हुआ है। ‘माँ’ शीर्षक कविता में अपने घर से दूर रहने वाली माँ के अंतिम समय में उनके अंतर्मन की मनोदशा को झाँकने और आँकने का मर्मस्पर्शी प्रयास हुआ है। वह माँं जो पल-पल बच्चों के साथ रहना चाहती है, अंतिम सांसों के वक्त उन्हें पास न पाकर क्या सोचती रही होगी इसकी कल्पना साकार हुई है किंतु अंत में उनके चिरंतन साहचर्य की बात कही गई है कि मॉं न होते हुए भी सदैव साथ रहेंगी। यह कविता पांच भागों में है। ये भावों एवं विचारों के अलग-अलग आयामों को प्रस्तुत करती हैं। ‘उम्र भर’ कविता मनुष्य के जीवन पर्यंत चलते रहने किंतु कभी भी मुकम्मल अंजाम तक ना पहुँच पाने वाले जद्दोजहद, संघर्ष व कोलाहल की परिस्थितियों को रेखांकित करती हैं। ‘स्वाधीनता दिवस-1’ कविता के अंतर्गत कुछ बिछड़ गए साथियों की कसक अभिव्यक्त हुई है और ‘स्वाधीनता दिवस-2’ में उत्सवधर्मिता की आदत पर प्रकाश डाला गया है। किस तरह कोई तीज-त्यौहार, उत्सव-पर्व  मनाने के बाद खुशगवार लगतीं हमारे आसपास की व्यवस्थाएँ फिर से बेतरतीब होने लगती हैं। इनके अलावा ‘चंद्रयान’, ‘यही नहीं’, ‘पहचान’, ‘हिंदी दिवस’, ‘कुर्सी प्रताप’, ‘पलड़ा’, ‘विकास’, ‘दुनिया’, ‘वक्त’ इत्यादि कुल 77 कविताएँ इस पुस्तक में संगृहित  हैं। अंतिम तीन कविताएँ क्रमशः कुररी-1, 2 एवं 3 शीर्षक पर आधारित हैं। इनमें छायावाद के नामकरणकर्ता प्रतिष्ठित कवि पं. मुकुटधर पांडेय द्वारा रचित ‘कुररी के प्रति’ कविता में तत्कालीन युग संदर्भ पर केंद्रित उठाए गए 40 प्रश्नों के उत्तर वर्तमान युग जीवन के अनुरूप दिए गए हैं। ‘करूकाल’ काव्य संग्रह की कविताएँ हाल के वर्षों में ही विश्वव्यापी संक्रमण ‘कोविड-19’ की वजह से घटित हुई वैश्विक महामारी कोरोना काल के दरमियान गुज़रे संत्रास के विविध पहलुओं पर कारूणिक प्रकाश डालती हैं। साथ ही दुनिया के विभिन्न भागों में दृष्टिगोचर होतीं मानव व्यवहार की विकृतियाँ, भ्रष्टाचार, छिनाझपटी, पैंतरेबाजी, मारकाट, लड़ाई भिड़ाई, बम-बारूद आदि के दुष्प्रभाव से छटपटाती, कराहती, लहूलुहान होती मानवता की दारुण व्यथा कथा को पाठकों के समक्ष लाती है। ‘करूकाल’ शीर्षक से 31 कविताएँ हैं जिनमें से ‘पुरखे’ के बहाने पीढ़ियों की सतत् परिवर्तनशील विकासयात्रा पर विचार किया गया है। ‘ज़िन्दगी’ कविता एक व्यापक जीवन दर्शन है जिसमें बचपन से लेकर यौवन, बुढ़ापा आदि अवस्थाओं और इनके साथ-साथ जीवन के बदलते परिदृश्यों को एक स्थायी सत्य के रूप में उकेरा गया है। आगे रुग्ण एवं काल कावलित पिता के सहारे  अपनी निजी अनुभूतियों, भावनाओं को दुनियावी दर्शन के ताने-बाने में बुना गया है। अत्यंत कारूणिक लकवाग्रस्म बुजुर्ग पिता की विवशता पुत्र और पोते के समक्ष किस तरह अभिव्यक्त होती है, यह पल-पल परिवर्तनशील समय की विकास यात्रा का मर्म समझाती है। इसी तरह ‘आखिरी पड़ाव’ कविता में हर पल अव्यवस्थित होते जाते जीवन की झाँकी प्रस्तुत की गई है। वह जीवन जिसे मनुष्य जीवन पर्यंत अनवरत सँवारते, संभालते, खूबसूरत बनाते आगे बढ़ता है किन्तु आखिरकार एक दिन वह ऐसा बिखर जाता है कि फिर परिस्थितियाँ लाख प्रयास के बावजूद भी नहीं संभलतीं।कविताएँ पठनीय हैं। इनमें प्रस्तुत गंभीर भाव व्यंजना एवं विषय की गंभीरता रचनाकार की विलक्षण और गहन अंतर्दृष्टि की परिचायक हैं। बहुत सी कविताएँ ऐसी हैं जिनके घटनाक्रम नित्यप्रति हमारी नजरों से होकर गुजरती हैं किंतु रचनाकार की नज़र उन्हें पकड़ लेती हैं और वह गुजरने के बजाय उनके अंतःकरण में ठहर जाती हैं। उनकी संवेदना, ज्ञान, विचार एवं अनुभवों की भट्ठी में तपकर काव्य प्रतिमान में ढलती हैं और पाठक समाज के भावों को स्पंदित करती, मर्मस्पर्शी, प्रेरणादायक एवं समाजोपयोगी बन जाती हैं।  दोनों काव्य संग्रहोेें की भाषा शैली छोटे-छोटे वाक्यों वाली अत्यंत सरल, सहज एवं बोधगम्य हैं। कुछ कविताएँ विशेष ज्ञान एवं अवबोध स्तर की माँग ज़रूर करती हैं। कम शब्दों में बहुत कुछ समेट लेने का गुण इसका एक अन्य विशिष्ट पक्ष है। कुल मिलाकर दोनों ही काव्य संग्रह साहित्यिक एवं सामाजिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इन्हें पाठकों, शोधार्थियों एवं समीक्षकों के मध्य सम्मानजनक स्थान प्राप्त होगा। ऐसा पूर्ण विश्वास है। एक खास बात और, इतिहास के दोहराए जाने की बात अक्सर सुनने में आती है। यह कार्य साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में रायगढ़ अंचल से हुआ है। करीब 100 वर्ष पूर्व इसी क्षेत्र से पं. मुकुटधर पांडेय ने तत्कालीन विशेष काव्य प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ‘छायावाद’ नामकरण किया था। इसी तरह हाल ही के वर्षों में घटित वैश्विक कोरोनाकालीन कड़वे अनुभवों के दौर में हो रही रचनाओं की गुणधर्मिता को केंद्र में रखकर ‘करूकाल’ नाम दिया गया है। आने वाले समय में आलोचकों, समीक्षकों की समुचित दृष्टि इस पर पड़ती है तो हिंदी साहित्य जगत में ‘छायावाद’ के एक शताब्दी बाद ‘करूकाल’ नामकरण पुनः रायगढ़ अंचल से अभिहित हुआ, ऐसा सिद्ध होगा। बहरहाल! दोनों काव्य संग्रहों के लिए रचनाकार को अनेकानेक बधाइयाँ एवं उनकी सतत साहित्यिक विकास यात्रा के लिए मंगलकामनाएँ...

-डॉ. बेठियार सिंह साहू सहायक प्राध्यापक, हिन्दी राजेन्द्र महाविद्यालय, जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा, बिहार

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