कला - साहित्य
माटी और बचपन

माटी और बचपन तो होता है एक सा,
जिस रूप में गढ़ो बनता है वैसा।
चिलम जो बनाई सुलगती है खुद भी,
औरो को भी जलाती है।
चूल्हा जो बनाया,
खुद जल कर भी भूख वो मिटाती है।
घड़ा जो बनाया या बनाई हो सुराही,
खुद शीतल रहकर प्यास वो बुझाती है।।
बचपन में सिंचन किया हो जैसा,
गढ़ी हो जैसी माटी की मूरत।
भविष्य नजर आता है वैसा,
चिलम जो बनाई
संपूर्ण समाज को जलाएगी।।
बनाया तुमने हो गर चूल्हा,
खुद जलकर भी रक्षण वो करेगा।
या गढ़ी हो सुराही,
सारे जग को शीतल वो करेगी।
दोष नही माटी का,
माटी की डोर आपके हाथ।
चाहो तुम जैसा मूर्ति वो बनेगी,
जलाएगी, जलेगी या फिर शीतल करेगी।।
ये तो जिम्मेदारी बस आपकी बनेगी,
माटी की डोर आपके हाथ में जो होगी।
श्रीमती वीणा अग्रवाल (रायगढ़)